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Marine

Saiyaara
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Chapter 1 - चैप्टर 1

शाम का वक़्त था। मुंबई की भीड़भाड़ वाली ज़िंदगी अपने शोर और रफ़्तार के साथ चल रही थी। घड़ी में करीब 6 बज रहे थे, जब मैंने तय किया कि आज थोड़ी फुर्सत निकाली जाए और शहर की हलचल से हटकर मरीन लाइन्स की ठंडी हवाओं का मज़ा लिया जाए।

शहर का शोर पीछे छूट रहा था और मैं चर्चगेट स्टेशन से निकलकर सीधा एफ.एस. मार्केट की ओर बढ़ गया। बाज़ार की रौनक हमेशा की तरह चहल–पहल से भरी थी—रंग–बिरंगी दुकानें, लोगों की आवाजाही, कहीं खाने की खुशबू तो कहीं bargaining की आवाज़ें। मैं धीरे–धीरे गलियों में घूमता रहा, सामान देखता रहा, जैसे उस पल हर चीज़ का हिस्सा बन गया हूँ।

करीब एक–डेढ़ घंटा यूँ ही बाज़ार में घूमते–घूमते बीत गया। थकान तो थी, पर मन अभी भी कहीं और सुकून ढूँढ रहा था। और शायद उस सुकून का नाम था समंदर।

मरीन लाइन्स की ओर

करीब 9:30 बजे मैं मरीन लाइन्स पहुँच गया। वहाँ का नज़ारा हमेशा ही अद्भुत होता है। समंदर की लहरें किनारे से टकराकर जैसे एक–एक राज़ सुनाती थीं। मैं जाकर सी–फेसिंग साइड के सिटिंग प्लेस पर बैठ गया। हवा मेरे चेहरे से टकरा रही थी और दूर से आती लहरों की आवाज़ दिल को एक अजीब–सा सुकून दे रही थी।

कुछ देर तक मैं बस समंदर को देखता रहा। शहर की रौशनी पानी में झिलमिलाकर जैसे कोई दूसरा संसार रच रही थी। उस पल ऐसा लग रहा था मानो मैं अकेला हूँ, और पूरी दुनिया सिर्फ़ मेरे और समंदर के बीच है।

मेरी नज़रें कभी लहरों पर टिक जातीं तो कभी दूर वानखेडे स्टेडियम की तरफ़ चली जातीं। वक़्त का पता ही नहीं चला, और करीब 20 मिनट वहीं बैठे–बैठे गुज़र गए।

फिर अचानक मुझे ख्याल आया कि देर हो रही है। मैं उठा और ट्रेन पकड़कर अपने कमरे की तरफ़ निकल पड़ा। जब मैं कमरे पहुँचा तो घड़ी 11:20 बजे का समय दिखा रही थी।

रहस्यमय खिंचाव

कमरे में आने के बाद मैंने जूते उतारे, पानी पिया और बिस्तर पर बैठ गया। लेकिन अजीब–सा बेचैन एहसास मेरे दिल में उठ रहा था। जैसे किसी ने मुझे आवाज़ दी हो, या जैसे मेरा मन किसी अनदेखी जगह खिंच रहा हो।

करीब 10–12 मिनट ही हुए थे कि न जाने मुझे क्या सूझा, मैं फिर से उठ गया। बिना सोचे–समझे दोबारा ट्रेन पकड़ी और चर्चगेट की तरफ़ चल पड़ा।

मुझे खुद भी समझ नहीं आ रहा था कि मैं क्यों वापस जा रहा हूँ। थकान भी थी, रात भी हो चुकी थी, पर अंदर से एक खिंचाव था जो मुझे खींचे ले जा रहा था।

सुनसान मरीन लाइन्स

इस बार जब मैं मरीन लाइन्स पहुँचा, तो नज़ारा पहले जैसा नहीं था। शहर की चहल–पहल कहीं ग़ायब थी। घड़ी करीब आधी रात का समय दिखा रही थी और पूरा इलाक़ा असामान्य रूप से सुनसान लग रहा था।

मैं जाकर एक कुर्सी के पास बैठ गया। ठंडी हवाएँ तेज़ हो चली थीं, और लहरों की आवाज़ अब और गहरी लग रही थी।

इत्तेफ़ाक़ देखिए, उस वक़्त करीब 200 मीटर के दायरे में कोई भी इंसान नज़र नहीं आ रहा था। पूरा समुद्र–तट जैसे सुनसान पड़ा था। केवल सड़क के किनारे तीन गाड़ियाँ खड़ी दिखाई दीं—एक चमकती हुई BMW, एक बड़ी सी बस, और एक साधारण–सी सफ़ेद रंग की कार।

मुझे उस सन्नाटे में अजीब–सा एहसास हो रहा था। जैसे किसी अनजानी कहानी की शुरुआत होने वाली हो।

पहली झलक

मैं वहीं बैठा समंदर को देख रहा था, तभी मेरी नज़र सामने गई। मरीन लाइन्स पर जहाँ लोग अक्सर बैठते हैं, ठीक वहीं पर एक लड़की बैठी थी।

उसके बाल हवा में लहरा रहे थे। उसने हल्के रंग का कपड़ा पहन रखा था जो चाँदनी में और भी चमक रहा था। वह भी मेरी तरह समंदर की तरफ़ देख रही थी, मानो अपने ही खयालों में खोई हुई हो।

उस सुनसान माहौल में उसकी मौजूदगी ने मुझे चौंका भी दिया और आकर्षित भी किया। सवाल उठने लगे—वह इतनी रात को यहाँ अकेली क्यों बैठी है? क्या वह भी किसी खिंचाव के कारण यहाँ आई है? या फिर यह सिर्फ़ इत्तेफ़ाक़ है कि हम दोनों एक ही जगह पर, एक ही वक़्त में आ मिले?

लहरों की आवाज़, हवा का झोंका और उस लड़की की परछाई—सब मिलकर जैसे उस रात को रहस्यमय बना रहे थे।

उस रात की शुरुआत यहीं से हुई थी, लेकिन मुझे अंदाज़ा भी नहीं था कि यह महज़ एक इत्तेफ़ाक़ नहीं, बल्कि एक कहानी की दहलीज़ है…