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Chapter 6 - अध्याय 6: अनकहे शब्द

अध्याय 6: अनकहे शब्द

बारिश के उस दिन से बहुत कुछ बदल गया था—या शायद कुछ भी नहीं। कॉलेज की वही क्लासें, वही कैंटीन, वही दोस्त, वही मज़ाक... लेकिन जब आकाश और बिट्टू की निगाहें मिलतीं, तो कुछ पलों के लिए वक़्त ठहर जाता। अब जब दोनों एक-दूसरे के सामने होते, तो एक अनदेखी परत उनके बीच खिंच जाती—जिसे न तो तोड़ा जा सकता था, न ही अनदेखा किया जा सकता था।

आकाश अक्सर सोचता, क्या उसने कुछ कहा? नहीं। क्या बिट्टू ने कुछ कहा? शायद नहीं। लेकिन फिर भी, उनके बीच कुछ ऐसा था जो अब पहले जैसा नहीं रहा।

उस दिन क्लास खत्म होने के बाद दोनों लाइब्रेरी की ओर बढ़े। एक प्रोजेक्ट की तैयारी करनी थी। चुपचाप साथ चलते हुए, बारिश की उस शाम की यादें जैसे हवा में घुली थीं।

बिट्टू ने अचानक पूछा, "तुम कुछ सोच रहे हो?"

आकाश ने चौंक कर उसकी तरफ देखा। "मैं... हाँ, बस ऐसे ही।"

"कुछ ऐसा जो कहना चाहते हो?" उसकी आँखों में एक जानी-पहचानी शरारत थी, लेकिन इस बार उसमें कहीं हल्की सी गंभीरता भी छुपी थी।

आकाश ने मुस्कुरा कर टाल दिया, "इतनी बड़ी लाइब्रेरी है, पहले किताबें ढूंढ़ लें।"

बिट्टू भी हँस दी, लेकिन वो हँसी वैसी नहीं थी जैसी पहले हुआ करती थी। वो कुछ छुपा रही थी—या शायद कोई सवाल कर रही थी जो ज़बान पर नहीं आ रहा था।

लाइब्रेरी का कोना

दोनों ने लाइब्रेरी के एक कोने में सीट ले ली। किताबें टेबल पर थीं, लेकिन बातचीत गायब थी। पन्ने पलटते हुए बिट्टू की निगाहें बार-बार आकाश की तरफ चली जातीं। आकाश भी बीच-बीच में उसे देखता, जैसे कुछ कहने का साहस बटोर रहा हो।

"तुम... ठीक हो न?" बिट्टू ने धीरे से पूछा।

"हाँ, क्यों?" आकाश ने नज़रें नहीं मिलाईं।

"बस ऐसे ही। उस दिन के बाद... तुम कुछ ज़्यादा चुप हो गए हो।"

आकाश ने किताब बंद कर दी। अब वह उसकी आँखों में देख रहा था।

"बिट्टू," उसने रुक-रुक कर कहा, "कभी-कभी... कुछ बातें होती हैं, जो कहना आसान नहीं होता। क्योंकि डर लगता है कि कहने से कुछ बदल न जाए।"

बिट्टू ने कोई जवाब नहीं दिया। उसने धीरे से सिर झुका लिया।

वो पल जो बीत गया

लाइब्रेरी से निकलते हुए दोनों खामोश थे। कॉलेज के लॉन में बैठकर चाय पीते हुए भी चुप्पी उनके बीच बनी रही। बाकी दोस्त वहाँ से जा चुके थे। मौसम साफ था, लेकिन उनके दिलों में अब भी हल्की सी धुंध थी।

बिट्टू ने धीरे से कहा, "तुम्हें पता है, जब कोई बहुत अपना हो, और वो तुम्हें देखकर चुप रहे, तो वो चुप्पी बहुत भारी लगती है।"

आकाश ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में नमी थी, पर वो मुस्कुरा रही थी। वही बिट्टू थी—मजबूत, नर्म, और भीतर कहीं बहुत कोमल।

"तुम्हें ऐसा क्यों लगता है कि मैं कुछ छुपा रहा हूँ?" आकाश ने पूछा।

"क्योंकि मैं देख सकती हूँ।" बिट्टू ने अपनी हथेली फैलाई, "देखो, इसमें कुछ नहीं है, लेकिन फिर भी तुम महसूस कर सकते हो न कि ये हाथ थक गए हैं किसी इंतज़ार से?"

आकाश ने उसकी हथेली देखी, फिर अपनी उंगलियाँ उसके हाथ पर रख दीं। कोई शब्द नहीं कहे गए, पर दिलों में एक सौदा हो गया था—सच कहने का, लेकिन वक़्त आने पर।

रात की चुप्पी में...

उस रात आकाश अपने कमरे में देर तक बैठा रहा। उसने बिट्टू की दी हुई चिट्ठी कई बार पढ़ी थी, लेकिन आज फिर से उसे निकाल लिया। उसमें कोई इज़हार नहीं था, कोई स्पष्ट बात नहीं थी—लेकिन हर शब्द एक गवाही था उस रिश्ते की, जो नाम लेने से डरता था।

"कभी-कभी हम वो नहीं कह पाते जो कहना चाहिए, और जो कह देते हैं वो दरअसल कहना नहीं चाहते..."

उसने लंबी साँस ली, खिड़की खोली और बाहर देखा। चाँदनी बिखरी थी, सब कुछ शांत था। लेकिन भीतर बहुत कुछ हिल रहा था।

"क्या मैं भी वही कर रहा हूँ?" उसने खुद से पूछा, "जो कहना चाहिए, वो नहीं कह पा रहा?"

सुबह की उम्मीद

अगली सुबह कॉलेज में आकाश ने बिट्टू को दूर से आते देखा। उसके चेहरे पर वही चिरपरिचित मुस्कान थी, लेकिन आकाश अब समझने लगा था कि उस मुस्कान के पीछे कितनी परतें थीं।

जब वो पास आई, तो आकाश ने हल्के से कहा, "चलो आज बिना चुप्पी के बात करते हैं।"

बिट्टू ने थोड़ी हैरानी से देखा, फिर मुस्कुराई, "शायद यही अनकहे शब्द थे, जिनका मैं इंतज़ार कर रही थी।"

अध्याय का समापन

"अनकहे शब्द" कभी खो जाते हैं, कभी रह जाते हैं दिल में—लेकिन अगर किसी ने उन्हें महसूस कर लिया, तो उनका अर्थ अपने-आप बदल जाता है। बिट्टू और आकाश के बीच वो शब्द अब भी अधूरे थे, लेकिन उन्होंने एक-दूसरे की ख़ामोशी को समझना शुरू कर दिया था।

शायद यही किसी रिश्ते की शुरुआत होती है—जहाँ बातों से ज़्यादा नज़रों की अहमियत होती है, और मौन, सबसे गहरी अभिव्यक्ति बन जाता है।

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